अपनापन

मन वैरागी सा
ढूँढे उस पल को ,
 हर दम।
 ढूँढ रहा क्या जाने न
 मन वैरागी सा।
बचपन बीता,यौवन बीता,
 बढ़ते-बढ़ते बड़े हो गए हम
पर मिला नहीं वह खोया पल।
मन वैरागी सा
ढूँढे उस पल को
 हर दम।
नयन खुले हों या हों बंद ,
उद्विग्नता हुई न कुछ कम।
विडम्बना यह कि जानता नहीं मन
 किस बात का है ग़म
क्यों ढूढे वह पल .
मन वैरागी सा
ढूँढे उस पल को
हर दम।
मिल जाता गर वह खोया पल
जिसने चुरा लिया था
हमसे हमारा वह अपनापन।
जिसने रुलाया हमें जीवन भर।
मन वैरागी सा
ढूँढे उस पल को
हर दम।
एक शख्सियत खो दी थी हमने
जिसे कहा था 'माँ' उस पल
 नेत्र हैं कि थकते नहीं,
 ढूँढते रहते हैं हर दम।
मन वैरागी सा
ढूँढे उस पल को
हर दम।
जग में दिखते कितने अक्स
पर दिखता कहीं न अपनापन।
आत्मीयता  दिख जाए गर
अपना हो जाए सारा जग।
मन वैरागी सा
ढूंढे उस पल को
हर दम।
माँ सा दे जाए दुलार
ज़रा सा छू जाए एक बार
पवन की ठंडी लहर बनकर
या बारिश की फ़ुहार।
मन वैरागी सा
ढूँढे उस पल को
हर दम।

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