प्रसिद्ध धार्मिक-पुस्तकें पढ़नी ही चाहिए- (लेख )
प्रसिद्ध धार्मिक-पुस्तकें
पढ़नी ही चाहिए- (लेख )
पुस्तकें हमारी विवेक शक्ति को जहाँ बढ़ाती हैं
वहीं जीने का सलीका भी सिखाती हैं।पुस्तकें एक ओर हमारी मित्र हैं तो दूसरी ओर
हमारी मार्ग-दर्शिका भी हैं। अच्छा साहित्य हमेशा हमारे ज्ञान को बढ़ाता ही नहीं,
और ज्ञान बढ़ाने की जिज्ञासा को निरंतर बनाए रखता है।
धार्मिक-पुस्तकें पुरातन से आधुनिकता की
ओर ले जाने में पुल का कार्य करती हैं। धार्मिक
पुस्तकें हमारी आस्था को मजबूती देने का कार्य तो करती ही हैं ,हमें हमारी
संस्कृति से भी जोड़ती हैं,जो संस्कृति हमें हमारे
पूर्वजों से मिली है,उस धरोहर को बचाने और
सहेज कर रखने का कार्य पुस्तकों के माध्यम से ही किया जा सकता है। लिखित
साहित्य ही हमें हमारे प्रारब्ध से जोड़ता है। मानव मात्र ही है जो अपने मूल तक
पहुंचने के लिए पुस्तकों का सहारा लेता है, और पूर्वजों से मिली संस्कृति को सहेज
कर अगली पीढ़ी तक ले जाता है। भले ही आज ई-पुस्तकों का दौर है ,काग़ज की पुस्तकें
हों अथवा ई-पुस्तकें हों, हमारे प्रारब्ध की
विस्तृत जानकारी पुस्तकों से ही हमारे वर्तमान तक पहुंची है।
मानव-धर्म ही अपने आप में एक असीमित
पुस्तक है,जिसे समझने के लिए शब्दों की आवश्यकता पड़ती है, हमारे पूर्वजों की
संस्कृति को आगामी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए पुस्तकों में निहित कथा-लेख अथवा
घटनाओं को पुस्तकों के माध्यम से ही आगे पहुंचाया जा सका है। अपनी प्रारब्ध की
संस्कृति तथा धर्म की संस्कृति को समझने के लिए पुस्तकों का पढ़ना अनिवार्य हो
जाता है।
“धृतिः क्षमा दमोडसतेय शोचमिंद्रिय निग्रहः
धीविधा सत्यमक्रोधो, दशकं
धर्म लक्षणम् ।”
धर्म क्या है – पुस्तकों से ही हमें
ज्ञात हुआ कि धर्म विवेक है ,धर्म नीति है ,धर्म वह है जिसे मानव अपने आप में वहन
करके समाज में रहने के नियम बनाता है, जिसके कारण मानव-समाज परस्पर प्रेम-भाव से
एक-दूसरे के साथ बस्तियाँ-बनाकर अनेक वर्ष बिता देता है। धर्म वास्तव में वे नियम
हैं जो मानव ने अपने जीने की कला को निखारने के लिए बनाए हैं ,विद्वानों ने जन
साधारण को नियम पर चलने को बाध्य करने के लिए ईश्वरत्व से जुड़े रहने के मार्ग
बताए ।जो इन नियमों को नहीं मानते थे उनके लिए दंड का भी प्रावधान निश्चित किया । इन
सब नियमों को नीति-विषयक-धर्म का नाम दिया गया।
धार्मिक-पुस्तकों के अध्ययन से ही हमारे
बुज़ुर्गों ने हमें कहानियों के द्वारा प्राचीन संस्कृति के साथ जोड़े रखा है।
मानव-जाति को चार वर्गों में बाँटने का मकसद भी
यही रहा होगा कि सभी अपना-अपना कार्य सही ढंग से करते रहें ।जब इन नीतियों ने
कट्टर-पंथी का कार्य करना आरंभ कर दिया तो समाज को फ़िर से सुचारु रूप देने के लिए
विद्वत्जन समाज-सुधारक बनकर सामने आए और नीतियों में सुधार किया। यह सभी प्रकार की
जानकारी हमें पुस्तकों के माध्यम से ही मिलती है।
श्रीमद्भागवत् गीता में भी श्री कृष्ण ने
अर्जुन को धर्म सिखाते हुए यही कहा – मानव का धर्म कर्म करना है ,ऐसा कर्म जो
मानव-जाति के लिए उचित है , भले ही मानव जाति के विरुद्ध जाने वाला हमारा अपना
करीब का रिश्ते दार ही क्यों न हो , उसे दंड देना नीति है ,मानव धर्म है ।
पूर्वजों द्वारा सहेजी पुस्तकें
ही जोड़ती हैं- पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी के साथ। वेद-पुराणों की जानकारी, वाल्मीकि-रामायण,
तुलसीकृत-रामचरितमानस, वेद-व्यासकृत-महाभारत कृष्णोपदेश श्रीमद्भागवद्गीता आदि
ग्रंथ पढ़ने से ही ज्ञात हुआ कि हमारे पूर्वजों ने किस प्रकार धर्म की स्थापना की।
धर्म की स्थापना करने के लिए महाभारत-युद्ध करना पड़ा। जो धर्म के विरुद्ध खड़े
हुए उन्हें मृत्यु की शरण में जाना पड़ा ।
धार्मिक पुस्तकें क्यों
पढ़नी चाहिए- धार्मिक पुस्तकें
इसलिए पढ़नी चाहिए ताकि हम पाप-कर्म और पुण्य-कर्म को समझ सकें । इंसानियत को
ज़िंदा रख सकें । हमारे पौराणिक ग्रंथों में
निहित कहानियों से ही हम यह जान पाए कि त्याग क्या है ?
पुस्तकों से ही जान पाए थे कि महाराजा विश्वामित्र ऋषि विश्वामित्र कैसे बने।कैसे उन्होंने अपने तप के बल से गायत्री देवी की रचना ही कर डाली ।उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि मानव में वह शक्ति है जो देवों में भी नहीं । मानव अपने हठ से स्वर्ग पर भी अपना साम्राज्य स्थापित कर सकता है। धार्मिक पुस्तकों से ही पता चला कि मानव जाति के प्रथम पुरुष स्वायंभुव मनु के बाद सातवें मनु थे। प्रत्येक मन्वंतर में एक प्रथम पुरुष होता है, जिसे मनु कहते हैं। भगवान सूर्य का विवाह विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के साथ हुआ । विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम (यमराज) नामक दो पुत्रों और एक पुत्री (यमुना) को जन्म दिया।यही विवस्वान यानि सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु कहलाए ।
तुलसी कृत रामचरितमानस को पढ़ने से ही
पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित करने की प्रेरणा मिलती है। इस ग्रंथ के
नायक श्रीराम जी से समाज में एक पत्नी व्रत का चलन आरंभ हुआ था । परिवार में
तालमेल और आपसी सामंजस्य का उदाहरण और प्रेरणा रामचरितमानस अथवा वाल्मीकि कृत आदिकाव्य “रामायण” से ही मिलती है।
वेद जो चार हैं- 1. ऋग्वेद, 2. अथर्ववेद, 3. यजुर्वेद, 4. सामवेद ।
वेद प्राचीन भारत के पवित्र साहित्य हैं जो हिंदुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रंथ भी हैं । ‘वेद’ शब्द संस्कृत भाषा के ‘विद्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है-‘ज्ञान’ ।इसी धातु से ‘विदित’ शब्द बना जिसका अर्थ है जाना हुआ,इसी तरह ‘विद्या’ और ‘विद्वान’ शब्द भी इसी धातु से प्रचलन में आए। वेदों की भाषा संस्कृत है,परंतु आधुनिक संस्कृत भाषा से भिन्न है, जिसे वैदिक संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा कहा जाता है ,इस भाषा के प्राचीन रूप का एक अलग साहित्यिक महत्व बना हुआ है। प्राचीन काल के ऋषि वशिष्ठ ,शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन आदि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है।
सच तो यह है कि श्रीमद्भागवद्गीता का माहात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है ,क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रंथ है, इसका जितना अध्ययन करें, एक नया ही अर्थ उजागर होता है।ऐसा शायद इसलिये कि इसमें सभी वेदों का सार संग्रहीत किया गया है।स्वयं पढ़कर ही इसके ज्ञान को महसूस किया जा सकता है।एक बार में तो इसके सार को समझना अत्यंत कठिन है, हर बार पढ़ने पर नया ही भाव सामने आता है। एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा और भक्ति में भरकर जब हर ेक शब्द का अध्ययन किया जाता है इसमें निहित रहस्य का स्पष्ट अनुभव होता है।
धार्मिक पुस्तकों को पढ़कर ही हम इसमें निहित गूढ़ ज्ञान को समझ सकते हैं ,हमारे ऋषि-मुनियों ने हमारे लिए जो ज्ञान की धरोहर छोड़ी है उसे प्राप्त करने के लिए धार्क पुस्तकों को पढ़ना अति आवश्यक है।
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