मन की ऊहा-पोह
छोटे से मन में इतनी बातें
काग़ज़ कलम लेकर बैठें,
नदारद हैं अब सारी बातें।
कलम, कर में रख
विचारों के बादल
उमड़-घुमड़ कर
शोर करें,
पर सार्थक शब्दों को
न ढूँढ सकें।
किंकर्तव्य-सा मूढ़ मन
नेत्र इत-उत डोल रहे
बनते-बिगड़ते विचारों
को न तौल सकें।
सारे विचार इक दूजे में लिपट
अव्यवस्थित से हो रहे.
क्रम में प्रथम लगा
व्यवस्थित कर बता
न डोल इहाँ उहाँ
ऊहापोह मन की मिटा.
अब लिख न पाउँ
जो लिखना चाहूँ,
काश! कुछ ऐसा लिख जाउँ
शोषण से,
किसी एक को भी बचा पाउँ,
कोई बच्चा न हो
शोषण का शिकार
न सहे,अत्याचारी का अत्याचार.
ध्यान रहे ,न हो
उम्र से पहले
कोई बेटी बड़ी,
खेले गुड्डे गुड़ियों से,
न हो जाए बचपन में बड़ी .
अपने हिस्से का सुख भोगे
प्रफुल्लित मन-से,
रिश्तों को निभा,न उलझे
ऊहा-पोह में.
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