ये दुनिया खानाबदोश
ये दुनिया खानाबदोश जीवन कहां यहां
अपनी ही धुन में जी रहे,समय कहां यहां।
भाग रहे सब भाग रहे,बस भाग रहे यहां वहां
पता नहीं रुकना कहां, अंतिम छोर कहां यहां।
दिल लगाने की कोशिश की लाख मगर
अजनबी सी दिखी हर बार दुनिया की डगर।
न बातें अपनी,न आँखों का छूना अपना
न स्पर्श अपना-सा, न दुआएं अपनी-सी।
न इंतज़ार था हमारे लिए,न फ़िक्र कहीं भी
दिखावा ही दिखावा चारों ओर है दिखता।
ये दुनिया खानाबदोश,परायी-सी लगती।
मुसाफ़िर बन जैसे तैसे जीने को बाध्य करती।
दिल लगाने की कोशिश लाख की मगर
दिखती नहीं दुनिया में कोई अपनी सी डगर।
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