ओजस्वी प्राणी का स्वरूप
प्राणी का ओजस्वी होना अपने आपमें कितना
सम्मानजनक शब्द है,यह वही समझ सकता है जो प्राणी मात्र की महत्ता को समझता है।इतना
कुछ सीखने को है कि एक ज़िंदगी भी छोटी
पड़ जाए। तर्कशील मानव फिर क्यों संकीर्ण विचारों के साथ जी रहा है।प्यार बाँटो, ज्ञान बाँटो,शिक्षा बाँटो, भोजन बाँटो क्योंकि बाँटने में जो सुख मिलता है वह बेशकीमती
वस्तुएँ खरीदने में भी नहीं मिलता।आज मुझे बचपन का एक वाक्या याद हो आया है............एक बार की बात है मैं जब मात्र छः या सात साल की थी और दूसरी कक्षा की छात्रा थी।मेरे साथ मेरी ही कक्षा में पढ़ने वाला एक छात्र था जिसका नाम था दीपक भारद्वाज।हम हमेशा साथ-साथ ही कक्षा में बैठते थे। उसका घर भी हमारे घर से कुछ ही दूरी पर था। वह अक्सर हमारे घर आ जाया करता था और हम साथ बैठकर कक्षा में मिला गृह-कार्य करते थे।कुछ दिन यह सब बड़े अच्छे-ढंग से चलता रहा ,पर अचानक एक दिन मेरे पापा को पता नहीं क्या लगा कि वे हमें अलग करने की कोशिश में लग गए ।वह जब भी घर आता तो पापाजी झूठमूठ ही कह देते, "गुड्डी घर पर नहीं है,बेटा ,आप अपने घर पर बैठकर ही होमवर्क करलो"।धीरे-धीरे उसका हमारे घर पर आकर कार्य करना बंद हो गया ।इस पर भी वे चुपचाप नहीं बैठे।हम तीनों बहन-भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे उन्होंने मेरे बड़े भाई की ड्यूटी लगा दी कि स्कूल में भी हम साथ-साथ न बैठें,इस बात का पुरज़ोर ध्यान रखा जाने लगा ।मेरी समझ से बाहर था इस बात को समझना। पर मैं इस बात को कभी भी भूल नहीं पाई कि मेरे पापाजी ने ऐसा क्यों किया ।शायद उन्हें यह डर होगा कि कहीं बड़े होते-होते यह दोस्ती गहरी दोस्ती में न बदल जाए, या शायद कुछ और बात उनके मन में रही होगी..,।जो भी था मुझ पर इस बात का बहुत गहरा असर पड़ा था। अब मैं विवाहिता हूँ पर अक्सर मुझे याद हो आता है कि किस प्रकार मेरा बड़ा भाई कक्षा के बाहर खड़ा होकर हम पर निगरानी रखता था ,कहीं हम कक्षा में साथ-साथ तो नहीं बैठे हैं।मेरे मन में भी अब अपराध बोध सा लगने लगा था। कभी वह साथ होता भी था तो मैं वहाँ से हट जाती थी।धीरे-धीरे मेरे मन में यह बात घर करती चली गई। उसके बाद मैंने कभी-भी किसी लड़के से दोस्ती नहीं की।
चौथी कक्षा के बाद मैंने वह स्कूल छोड़ दिया था।पापाजी ने मेरा दाखिला आर्य पुत्री इंटर कॉलेज में दिलवा दिया था ,उसके बाद उससे कभी मुलाकात नहीं हुई ,पर स्कूल में हर शनिवार को बालसभा होती थी तब वह कोई-न-कोई गीत ज़रूर गाता था ।उसके गाए हुए गीत मुझे आज भी अच्छे से याद हैं......"मान मेरा कहना नहीं तो पछताएगा,माटी का खिलौना माटी में मिल जाएगा,........" । उसकी आवाज़ में लता मंगेश्कर जी के गाए गीत बड़े अच्छे लगते थे।जब भी रेडियो में "दिल एक मंदिर" का गीत सुनती हूँ ...."तुम्हीं मेरे मंदिर,तुम्हीं मेरी पू..जा... तुम्हीं देवता हो..."।तो स्कूल का स्टेज और उस पर यह गीत गाता दीपक भारद्वाज आँखों के सामने आ जाता है।
अपने बच्चों का पालन करते समय मैंने इस बात का बहुत ध्यान रखा है कि बच्चों पर किसी ऐसी बात का कोई गहरा असर न रह जाए जैसा मेरे मन पर पड़ा। बच्चों की मनोवैज्ञानिकता को समझने की पूरी कोशिश करती हूँ ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें