मानव और प्रकृति मैत्री भाव का साकार रूप प्रकृति में दिखता खूब, मानव और प्रकृति का टकराता भिन्न स्वरूप। प्रकृति में संयम भरपूर मानव दंभ में चूर।।१।। बगीचा कहे, मैं धरती की शोभा हूँ विभिन्न जातियों के , रंगों के फूलों को , पौधों को , संजोए हुए लिपटाए हुए , दुलारे हुए खड़ा हूँ , युगों से , पृथ्वी पर ,मानवों के बीच । दुःख -सुख के प्राकृतिक आवागमन में होता न विचलित,न विमुख न भयभीत ।।२।। हर पौधा है अपने निश्चित स्थान पर बिना होड़ के ,बिना दौड़ के कर्तव्यनिष्ठ भावना से ओतप्रोत हैं ,मगन हैं अपने कर्तव्य -निर्वाह में । निर्विघ्न राह पर बढ़ता नभ छूने की चाह में।।३।। मैं बाग़ीचा हूँ मानव की देख -रेख में रहता हूँ मगर विडम्बना ,मानव ही मुझसे नहीं लेता सीख समभाव मित्र सरीखी राह में स्वयं को सर्वोपरि रखता दंभ भरा उसकी चाह में।।४।। विपरीत नीति मानव समाज में- जाति भेद ,वर्ग विशेष युगों से खड़ी है ,जहाँ-तहाँ अनेक आये, समाज -सुधारक , कुरीतियों ने ले लिया और रूप नया । ...