घर में ननद की भूमिका

"वामा" हिंदी पत्रिका में छपा यह लघु लेख  मेरा ही लिखा हुआ, ब्लॉग के माध्यम से आपके सामने एक बार फिर से लाने  की यह छोटी सी कोशिश है ;इसे पढ़ कर अपने विचार जरुर बताएं ।
"अक्सर ऐसा सुनने में आता है कि किसी भी परिवार की बहू को यह शिकायत होती है कि अगर उस के किसी निर्णय से घर के पुरुष सहमत हो भी जाते हैं तो सास या ननद बाधक बन जाती है ,ऐसे में सास की बात को तो गंभीरता से नहीं लेना चाहिए क्योंकि सास बहू की उम्र में एक पीढ़ी का अन्तराल है ,उनके विचारों में अंतर होना स्वाभाविक ही है ,परन्तु अगर ननद अपनी भाभी को न समझे तो इस बात को ननद के हृदय में भाभी के प्रति ईर्ष्या ही कहेंगे ,क्योंकि किसी बहु की जो समस्याएँ होती हैं वह हिंदुस्तानी परिवार की प्रत्येक बहु की समस्या है और ननद भी तो किसी न किसी घर की बहु ही होती है न ।इसलिय ननद के लिए भाभी को समझना कठिन नहीं होना चाहिए ।
इसी प्रकार अगर प्रत्येक ननद भाभी का पक्ष लेने का निर्णय ले ले तो कड़ी दर कड़ी यह समस्या काफी हद तक हल होती चली जायेगी ,और यह कथन "नारी ही नारी की बाधक होती है",जो अक्सर दोहराया जाता है ,असत्य सिद्ध हो जाएगा तथा घर-घर से यही वाक्य कहा जाता सुनाई देगा कि भई "मित्रता हो तो ननद भाभी जैसी "।"

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