KAB JAAYEGA BACHPANA


मैं , 
विभिन्न जातियों के विभिन्न रंगों के 
फूलों को पौधों को ,अपने में संजोए हुए 
खड़ा हूँ 
कब से इस पृथ्वी पर 
मानवों के बीच ।
दुःख -सुख के 
प्राकृतिक आवागमन में 
होता नहीं विचलित कभी 
और न विमुख कभी ।
मनुष्य की देख -रेख में 
रहता हूँ मगर 
विडम्बना कि 
मानव मुझसे 
नहीं लेता सीख ।
जाति भेद की नीति 
वर्ग विशेष की बीथि 
युगों से खड़ी है 
जहाँ तहाँ 
अनेक आये 
समाज -सुथारक 
मगर कुरीतियों ने ले लिया 
और रूप नया ।
मैं ,
बागीचा हूँ 
धरती की शोभा हूँ ।
मानव -स्वभाव पर 
रोता हूँ 
फूलों को रोंदता है 
काँटों को समेटता है 
कब जाएगा मानव 
तेरा यह बचपना ।

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