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स्वर्गीय श्री सुखदेव कालिया जी की लिखी पुस्तक "जीवन -ज्योति "पूर्णतया उनके अपने निजी  अनुभवोँ का संग्रह है ।इसका कथा- प्रवाह संत महात्माओं के भक्ति -पथ की ओर अग्रसर करता है ।कुच्छ झलकियां निम्न है ।                                   अपार सत्ता का आभास            पन्द्रह अगस्त  1947 को  भारत  आजाद  हो  गया  और  दुर्भाग्य  से देश  के दो टुकड़े  हो गय। एक  हिन्दुस्तान बना  और दूसरा पाकिस्तान  के  नाम  से  जाना  जाने  लगा। उन  दिनों  जो  ख़ून  ख़राबा  हुआ  वह किसी से छिपा नहीं है ..........उस समय मुझे फिरोजपुर कालोनी के उस वृद्ध पुजारी की भविष्यवाणी बरबस स्मरण हो आई जिसमें उन्होंने दो वर्ष पूर्व ही हिंदुस्तान के बँटवारे के संकेत दिए थे ।*                                 ...

KAB JAAYEGA BACHPANA

मैं ,  विभिन्न जातियों के विभिन्न रंगों के  फूलों को पौधों को ,अपने में संजोए हुए  खड़ा हूँ  कब से इस पृथ्वी पर  मानवों के बीच । दुःख -सुख के  प्राकृतिक आवागमन में  होता नहीं विचलित कभी  और न विमुख कभी । मनुष्य की देख -रेख में  रहता हूँ मगर  विडम्बना कि  मानव मुझसे  नहीं लेता सीख । जाति भेद की नीति  वर्ग विशेष की बीथि  युगों से खड़ी है  जहाँ तहाँ  अनेक आये  समाज -सुथारक  मगर कुरीतियों ने ले लिया  और रूप नया । मैं , बागीचा हूँ  धरती की शोभा हूँ । मानव -स्वभाव पर  रोता हूँ  फूलों को रोंदता है  काँटों को समेटता है  कब जाएगा मानव  तेरा यह बचपना ।